Thursday, December 26, 2013

बादलोँ को धन्यवाद

सुबह सुबह या दोपहर में 
और कभी रात में भी शायद
देखा है बादलोँ को बनते,
लड़ते- बिगड़ते , बहते शायद 
बंगाल की खाड़ी में कारखाना लगा हो जैसे
खेल का मैदान बन गया हो आसमान जैसे 
नये- पुराने, काले-गोर , मोटे-छोटे
सब तरह के , हँसते खिलखिलाते से
कुछ धीरे- धीरे थके हारे से
तो कुछ जल्दी में हड़बड़ाते से
चले जा रहे होते हैं
मदमस्त होकर इतराते से
नशे में चूर हों मानो
मंज़िल बहुत दूर हो मानो
सब देखते से जाते हैं
विचारते सोचते से जाते हैं
सूखी धरती से सूखे दिल का हाल जानते हो मानो
लुटाने को अपना सब कुछ  बेक़रार हो मानो
ले आते  हैं ये रिमझिम बौछार हर बार
थोड़ी पुरानी यादें और थोड़ा पुराना प्यार

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