Tuesday, January 18, 2011

मैं और मेरे रास्ते

रास्ते ही रास्ते देखूं जहाँ हैं रास्ते 
क्यों मंजिलें दिखती नहीं चल पडूं जिनके वास्ते 
धूमिल पड़ी सी एक छवि 
क्यों दिख रही है ना कहीं 
जिसको में बढ़ के पा सकूं 
अपना जिसे बना सकूं
क्यों धुंध ये छटता नहीं
रास्ता है के कटता नहीं
वैसे के वैसे हैं, के क्यों 
कमते  नहीं ये फासले
रास्ते ही रास्ते देखूं जहाँ हैं रास्ते 
क्यों मंजिलें दिखती नहीं चल पडूं जिनके वास्ते 
चल पड़ा जो मैं  अगर 
पा जाऊँगा मंजिल मगर 
हर ओर जाती है नज़र 
क्यों ना रुकी उस राह पर 
जिस पर कदम बढ़ाके मैं 
पाजाऊं जो चाहूँ के मैं 
मीलों सफ़र भी ख़तम हो
एक कदम की शुरुवात से 
रास्ते ही रास्ते देखूं जहाँ हैं रास्ते 
क्यों मंजिलें दिखती नहीं चल पडूं जिनके वास्ते 

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