Saturday, November 12, 2011

रात यूँ कहने लगा मुझसे गगन का चाँद


रात यूँ कहने लगा मुझसे गगन का चाँद ,
आदमीं भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझाने अपनी बना कर आप ही फंसता ,
और फिर बेचैन हो जगता, सोता है |

जानता है तू की मैं कितना पुराना हूँ ?
मैं चूका हूँ देख मनु को जनमते मरते
और लाखों बार तुझसे पागलो को भी ,
चांदनी में बैठे स्वप्नों पर सही करते |

आदमी का स्वप्न है वह बुलबुला जल का,
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ,
किन्तु फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो,
बुलबुलों से खेलता ,कविता बनाता है |

मैं बोला किन्तु मेरी रागनी बोली ,
देख फिर से चाँद ! मुझको जनता है तू ?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी ?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू ?

मैं वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनता हूँ ,
और उसपर नीव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठता हूँ |

मनु नहीं, मनु पुत्र है यह, सामने जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल ,
स्वपन के भी हाँथ में तलवार होती है |

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
रोज़ ही आकाश चदते जा रहे हैं वे ,
रोकिये जैसे बने की स्वप्न वालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ाते आरहे हैं वे |
                                       
                                              -श्री रामधारी सिंह 'दिनकर '